देवड़ा (चौहान) - मेवाड़ के
देवड़ा (चौहान) - मेवाड़ के
चौहान का मूलपुरूष चह्मान माना जाता है जिनके वंश में वासुदेव ने 8 वीं शताब्दी में सांभर पर राज स्थापित किया। इसी वासुदेव का बाहरवा (12) वंशज वाक्पतिराज हुआ जिसका एक बेटा सिंहराज सांभर व अजमेर के चौहान का मूलपुरूष बना तथा दूसरा पुत्र नाडोल के चौहान का सस्थापक हुआ। और नाडोल शाखा से सिरोही, बूंदी व कोटा के शासक निकले।वंश भास्कर के अनुसार माणकराव चैहान के बेटे निर्वाण के वंश मे देवट हुआ जिसके वंशज देवड़ा कहलाए।
नैणसी री ख्यात के अनुसार नाडोल के राव लाखणसी के वंश में अश्वराज की अत्यन्त सुन्दर पत्नी देवी सदृश्य थी जिनसे उत्पन्न पुत्र (“देवी रा“ कहलाए तत्पश्चात् देवरा और फिर देवड़ा कहलाएं)
दूसरा मत वर्तमान देवड़ा शाखा का उद्भव चौहान वंश की सौनगिरा शाखा से हुआ ।
जालौर के राजा मान सिंह( 1213-1228) जिनको मानसी या भानसी भी कहा गया के पुत्र देवराज के वंशज देवड़ा कहलाए।
राव विजयराज (1250-1311) “बीजड़“ नाम से प्रसिद्ध हुआ उसके पुत्र
1. लुम्भा (राव लुम्भा देवड़ा ने परमारों से आबू छीन लिया था।)
2. लूणकरण ठि. बड़गाव (मारवाड़)
3. लक्ष्मण ( इसके वंशज मेवाड़ में आए।)
4. चूण्डा
5. लूड(लूणा-लूढ़ा)
मेवाड़ में देवड़ो का प्रवेश-
सन् 1495 में सिंध के मुसलमान मेवाड़ के गिर्वा परगने पर रहने लगे। तब उन लोगों द्वारा वहाँ निवासरत् बाबेल महाजन और नागदा ब्राह्मणों को तंग किया जाता था। जिससे परेशान होकर वे महाराणा रायमल के पास गए। तब राणा रायमल किसी युद्व की तैयारी में व्यस्त थे तब सिरोही के राव को लिखित पत्र के आधार पर सेना भेजने के लिए कहा तब उन्होंने लक्ष्मण के ंवंशजो को किर्तिराव के नेतृत्व में मेवाड़ में भेजा और देवड़ा सरदारों ने उन मुसलमानों से लड़ाई कर विजय प्राप्त कर ली। और यही बस गए।
दोहा “सिन्ध्या सात हजार मारिया लिया गिरवा को राज“
महाराणा रायमल ने देवड़ा पूँजा को “भ्रमर“ नामक घोड़ा प्रदान किया था जो शायद इन देवड़ा सरदारों में कोई एक था।
तात्कालिक ग्रंथो के अनुसार उदयपुर के आस पास देवड़ा के 50 (तथा 52) गाँव बताए गए।, कुछ जगह इन्हें देवड़ा की 52 टुकड़ी फौज कहा गया था। वो शायद 52 देवड़ा सरदारों के रावले(मकान) हो सकते है।
वर्तमान उदयसागर जहाँ स्थित है वहाँ बेड़च नदी बहती थी और वहीं पर देवड़ा सरदार रहने लगे और अपने मजबूत कोट का निर्माण करने में लग गए।
एक बार राणा उदय सिंह शिकार खेलते हुए देबारी तक आ पहुँचे और अचानक उनका एक घोड़ा जो खूंटे से बंधा था वहाँ से छूट भागा और सामने से एक देवड़ा राजपूत की कन्या सिर पर पानी के दो घड़े लिए और हाथ में भैंस का बच्चा उठाए हुए आ रही थी जो अत्यन्त सुन्दर भी थी। उसने बिना कुछ गिराये उस भागते हुए घोड़े की रस्सी पर पाँव देकर उसको रोक दिया और एक हाथ से घोडें को काबू में कर लिया।
जिससे राणा उदय सिंह अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्होंने देवड़ा सरदारो को कहलवा भेजा की आपकी इस कन्या से हम विवाह करना चाहते है तब देवड़ो ने नारियल भेजकर सगाई पूरी की और बाद में विवाह करवा दिया।
सम्भवत् उस कन्या का नाम “लाड़ कंवर देवड़ी जी“ जो बन सिंह जी देवड़ा की पुत्री थी।
फिर राणा उदय सिंह ने कुछ समय पश्चात् उन 52 देवड़ा सरदारों को बुलाया और कहा कि कि -“आप में से कोई एक (पाटवी ठाकुर मुखिया )आप लोग स्वयं चुन लो और उसको इस खाट (पलंग) पर बिठा दो। “ और मैं इस क्षेत्र को ठिकाना घोषित कर देता हूँ । और मैं कुछ देर में आता हूँ।
तब सर्वसम्मति के विपरीत देवड़ा सरदार आपस में लड़ने लग गए।
“सबने कहा मैं बनूगाँ ठाकुर“ और लड़ते हुए उन्होंने उस पलंग पर बैठने के चक्कर में उसको उल्टा कर दिया । और सबने अपना अपना पैर उस पलंग पर रख दिया ।
जब राणा उदय सिंह जी वापस वहाँ पधारे तो बड़े नाराज हुए। और कहा कि ( था सब ठाकर हो) और चले गए।
फिर राणा उदय सिंह ने वहाँ जहाँ देवड़ा सरदार रह रहे थे वहीं पर तालाब(उदयसागर) खुदवाया और उन लोगों को वहाँ से हटा दिया तब सभी देवड़ा अपने कुल गुरू के पास गए और अपनी बात कह दी हमारी जगह छीन ली जा रही है अब हम कहा जहाँ तब गुरूजी ने कहा ठीक मै कुछ करता हूँ तब रोज शाम को तालाब की पाल टूट जाती क्योंकि देवड़ो कुल गुरू बड़े चमत्कारी थे। वो दिन भर एक बिस्तर को सिलते और शाम होते ही जैसे ही उस बिस्तर में से धागा निकालते तो उदयसागर की पाल टूट जाती थी। बहुत दिन हो गए राणा उदय सिंह परेशान हो गए।
तब उनकी पत्नी लाड़ कंवर देवडी जो उन देवड़ा सरदारों की रिश्तेदार थी उसने कहा कि - राणाजी आप, देवड़ो के कुल गुरू से सम्पर्क करें वहीं हल निकाल सकते है।
तब राणाजी स्वयं देवड़ा के कुल गुरू के पास और विनम्रता से कहा की “महाराज तालाब की पाल रोज टूट जाती कि कुछ कृपा कराओ अगर तालाब नहीं बना तो सभी जीव-जन्तु मनुष्य सभी का नुकसान होगा।
देवड़ा के कुल गुरू- ने कहा कि तालाब की पाल अब से नहीं टूटेगी परन्तु मेरे शिष्य ये देवड़ा सरदार कहा जाएँगे
तब उदय सिंह जी ने कहा कि आपकी सारी शर्तें मंजूर है आप आदेश कराओ । तब उन्होंने की मेंरे ये सारे देवड़ा बेड़च नदी के किनारे और इस उपजाऊ गिर्वा भूमि में ही बसेंगे इनको कही और भेजा नहीं जाएगा। तब राणाजी के सहमति से और इस प्रकार देवड़ा बेड़च(आहाड़ ) नदी के किनारे और उपजाऊ गिर्वा भूमि के आस पास के गाँवो जैसे - देबारी, साकरोदा, मटून, लकड़वास, पनवाड़ी, कानपुर, कलडवास, पाठो की मगरी,बेड़वास में बस गए। और फिर वहाँ से डबोक के आस पास मेड़ता, गोपालपुरा, तथा साकरोदा के आस पास मीठा नीम, चैहानों का गुड़ा में बस गए।
राणा अमर सिंह द्वितीय के समय 1704 में मेवाड़ में देवड़ों कुल 19 जागीरदार थे जिनकी कुल रेख 44100 रू. थी।
1. देवड़ा जगत सिंह (इसरदास का पुत्र) 15200 रू. (इसकी मुख्य वतन- जागीर पालड़ी ग्राम था। वर्तमान बड़ी तालाब के नीचे का क्षेत्र)
2. देवड़ा पबो ( माधुदास का पुत्र ) 700 रू.
3. देवड़ा रूघगज सिंह ( केसरी सिंह का पुत्र) 1000 रू.
4. देवड़ा अखे सिंह ( खेत सिंह का पुत्र) 500 रू.
धीरे-धीरे सन् 1823 तक आते आते राणा भीम सिंह के समय इनकी जागीरी खालसे कर दी गई और बाद में इनके सिर्फ तीन ठिकाणे सीधे मेवाड़ दरबार ने दे रखे थे।
1. देबारी ( समस्त देवड़ा के ) 300रू.
2. मोरवानिया 150 रू.
3. वरड़ा 165 रू.
सन् 1823 तक की मेवाड़ के जागीरदारों के बही खाता के आधार पर यह सुनिश्चित होता है कि इनके जागीरी गाँवो में इन सरदारों ने लड़ाई या किसी कारण वश या निसंतान होने पर ठाकुर पदवी खत्म कर दी। और फिर जो भी कर (टैक्स) इनको मिलता वो सब मे बाँट दिया जाता था।
मेवाड़ में देवड़ा की उपशाखाएँ
1 कर्मावत-कलड़वास, पाठो की मगरी, कानपुर, लकडवास, बेड़वास,
2. मोकावत - मटून ( मटून को मटूणिया भी कहा गया है तथा यहाँ पर ढिकली से गोद आते है।)
3. डूंगरोत- देबारी (वाले स्वयं को डूंगरोत होने का दावा करते है पर देवी सिंह जी मंडावा की पुस्तक की आधार पर ये विजयराज के पुत्र लक्ष्मण के वंशजों में से एक है तथा उनके साथ मेवाड़ में सन् 1500 के आस पास आए परन्तु तब तक डूंगरोत शाखा का उद्भव हो चुका था शायद वो डूंगरोत भी इनके साथ आ गए हो और यही देबारी में बस गए।)
वर्तमान में देवड़ो की शादी होने पर साकरोदा, मटून, मेड़ता वाले उदयसागर के भैरूजी को पूजते है और यह गाँव काफी दूर भी है वहाँ से जबकि देबारी वाले देवड़ा देबारी में स्थित भैरूजी के जाते है इसलिए शायद यह अलग खाँप वाले हो सकते है
इनके अलावा चोर वाबड़ी के देवड़ा जिनका ढाणा का भाइपा है यह बाद में आए और बड़वाजी की पोथी के अनुसार वो सुनिश्चित रूप से स्वयं को डूंगरोत बताते है और उषाण वाले देवड़ा भी इनके भाई।
4. ठि. वरड़ा - ये देवड़ो का एकमात्र गाँव है जहाँ के देवड़ा अपनी उपशाखा बताते है जो निम्न है
केलावत, भाणावत, सुजावत, सामतोत अमरावत, लिम्बावत, नाथावत, और ये सभी सिरोही के राव लाखा (1451-1483) के पुत्र उदय सिंह के पुत्र सामंत सिंह, तथा पौत्र भाण,, सुजा,, केला,, कें वंशज निश्चित रूप से हो सकते है।
और मेवाड़ के देवड़ा स्वयं कहते कि वरड़ा वाले देवड़ा बाद में आए और इनको किसी “नेसलदेव“ के वंशज बताते है।
शायद ये लोग ठि. वरड़ा, मोरवानिया, लियों का गुड़ा, कटारा, पालड़ी, दरड़ा वाले निश्चित रूप से लखावत देवड़ा हो सकते है।
क्योंकि सन् 1704 में जगत सिंह (इसरदास सिंह का पुत्र) को 15200 रू. की जागीर पालड़ी ग्राम की प्राप्त थी। उस समय ठि. बाठेड़ा (मेवाड़ का द्वितीय श्रेणी का ठिकाणा) के पूर्वज सूरत सिंह सांरगदेवोत को 20000 रू. की जागीर प्राप्त थी। और ठि. मोही (भाटी के पूर्वज महारावल सबल सिंह जैसलमेर का पुत्र महा सिंह की रेख भी 12200 रू. ही थी। ये लोग मेवाड़ के बड़े जागीरदार थे और लगभग इनके आस पास किसी देवड़ा सरदार को जागीर मिलना मतलब वो प्रभावशाली सरदार शायद बाद में सिरोही से मेवाड़ में आया और ये लोग पूर्व के देवड़ा सरदारों की भाँति बेड़च नदी के किनारे भी नहीं बसे उनसे बिल्कुल अलग है।
और शायद इसी ईसरदास के वंशजों ने बाद में ठि. वरड़ा और ठि. मोरवानिया प्राप्त किया था।
वरड़ा वाले उदयपुर स्थित अम्बामाता मन्दिर की चैकीदार करते थे और वहाँ राणाजी के आदेश पर बलि दिया करते थे।
5 ठि. मुणवास - कस्तूरिया देवड़ा
6. ठि. पाठो की मंगरी - ये कर्मावत देवड़ा है परन्तु आहड़ स्थित महासतिया मेवाड़ दरबार के श्मशान (मसान ) की रखवाली करने की कारण इनको बोलचाल में “मसानिया “ कहा जाता है
7.इनके अतिरिक्त गोगुन्दा मे देवड़ो का खेड़ा, आसुजी का खेड़ा, मोडवा और भी देवड़ा सरदारों के गाँव जिनकी जानकारी प्राप्त नही हो सकी।
देवड़ो के ठिकाणे जो सीधे दरबार के अधीन थे।
1. मटूणिया( मटून)
2. देबारी
3. बरोडो (वरड़ा)
4. मोरवानिया
पर इन सरदारों ने धीरे - धीरे ठाकुर पदवी खत्म कर दी वर्तमान में मटून में ठाकुर पदवी है।
जहाँ अभी भी ठाकुर पदवी है
1. मटून-
2. सेनवाड़ा - ठि. सेनवाड़ा की देवड़ा कन्या का विवाह मेवाड़ के 16 उमराव मे शामिल गोगुन्दा के राजराणा से कराई जा चुकी है जो बात पूरे गोगुन्दा क्षेत्र में प्रसिद्ध है।
3. गोपालपुरा
4. डाकन कोटड़ा
राजसमंद जिले में जो देवड़ा राजपूत है उन लोगों का इन लोगों से कोई लिंक नहीं मिला।
मेवाड़ में देवड़ा राजपूतों के गाँव
1.मटून
2.वरड़ा
3.मोरवानिया
4.देबारी
5.लियो का गुड़ा
6. कटारा
7. रामगिरि
8. दरड़ा
9. सालमपुरा
10.राजपुरा.
11. तितरड़ी
12. सवीना खेड़ा
13. डाकन कोटड़ा
14.कालेसरिया
15.देवड़ो का गुड़ा
16. देवड़ो का खेड़ा
17 धायला
18 गोपालपुरा
19.चतरपुरा
20. बेरण
21.मुणवास
22.कुंडाल
24. सेनवाड़ा
25. मेड़ता
26. ढिकली
27. मंदेरिया
28. चैहानो का गुड़ा
29 कालीमगरी
30. पाठो की मंगरी
31. क्यारिया
32 मंदेसर का गुड़ा
33. बडन्दिया
35. हीता
36. मोड़वा
37. आसुजी का खेड़ा
38. कानपुर
39. गुपड़ी
40. बाँसलिया
41. जैसिंगपुरा
42. पीपरोली
43. ढाणा
44.चोरवाबड़ी ( विजयवाबड़ी)
45. बिछड़ी
46. रानीखेड़ा
47. निबाहेडा का गुड़ा
48. ओड़ा
49. बेड़वास
50. साकरोदा
51. लकड़वास
52. कलड़वास
53. दा का खेड़ा
54. धीरजी का खेड़ा
कृपया मेवाड़ में निवासरत देवड़ा राजपूतो के बारें में अतिरिक्त जानकारी उपलब्ध करावें तथा कोई गलती हो तो क्षमा करावें।
आज दिन तक किसी ने मेवाड़ के देवड़ा पर कुछ लिखने का प्रयास नहीं किया इसलिए ज्यादा जानकारी उपलब्ध नही हो पाई।
लेखक- हेमेन्द्र सिंह दुलावत
ठि. शिव सिंह जी का गुड़ा ( सामल)
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मेवाड़ के देवड़ा , सिरोही के राजा राव विजयराज(बीजड़) के पुत्र लक्ष्मण के देवड़ा जो बावनगरा देवड़ा कहलाए। जो बाद में मेवाड़ मे चले आए। |
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देवी सिंह जी मंडावा की पुस्तक में मेवाड़ के मटून, देबारी, लकड़वास के देवड़ा को बावनगरा से सम्बन्धित बताया गया है। |
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राणा अमर सिंह द्वितीय 1704 के समय देवड़ा के जागीरदार और उनकी रेख |
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राणा अमर सिंह द्वितीय 1704 के समय देवड़ा के जागीरदार और उनकी रेख |
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राणा भीम सिंह 1823 के समय देवड़ा के जागीरी गाँव और उनकी रेख |
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डबोक स्थित धूणी माता में देवड़ा का नवीन शिलालेख |
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मेवाड़ के जागीरदारों के गाँव - पट्टे पुस्तक में बराडो(वरड़ा) तथा मोरवानिया की जानकारी |
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